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इरादों का संदल

उस नुकीले पहाडके अंतपर,
वह झांक रही थी नीचे
किसीके इन्तेजारमे………..

सुरज की रोशनीसे सारी वादी,
चमक रही थी खुबसुरतसी…………..

पंछीयोंकी चहचहाट सूनकर,
उसमे खुशी उमड रही थी,
काले घने बादलोंसे बेझीझक,
पानीकी बुंदे उसे नहला रही थी……..

डरावनेसे खयालोंसे घबरा गई दिलमे,
आशंका की गहरी लहरे
उभर रही थी उसके जहनमे……………

वादा तो दिलवर का पक्का था,
आज सुबह मिलनेका इरादा था,
ख्वाईश ती ऊसकी बेहतरीन थी,
सगाईकी अंगुठी पहनानी जो थी……………

उपरमे आनेकी कोशिश कर रहा था,
बारीशसे रास्ता किचड बन गया था,
उम्मीद वैसे ऊसकी बहुतही भारी थी,
दिलवरको मिलनेकी दिलमे लगी थी…………….

उसे देखकर जो किचडमे फसाँ था,
बेसबब दिलमे डर तो मंडरा रहा था,
मनमे उसके इरादोंका संदल था,
महेबूबाको मिलनेका अरमान भरा था……………..

बस अब जरासा और रेंगना था,
उसके हाथोंका चुमनेका इरादा था,
दिलवरको मिलनेका जुनून उसके दिलमे,
नशा ही नशा उसके आखोंमे भरा था…………..

साँसोमे उसके तुफाँन मचल रहा था,
फिरभी इरादा उसका अभी भी अटल था,
दिलवरकी उसके साँसे रुक रही थी,
पलकें न झपकी बस वही वो खडी थी…………….

आंखीरमे उसने कदम जो जमा ले,
नि:शब्दसा वो सम्मुख खडा था,
मेहबूबा उसकी अचलसी खडी थी,
ना बातोंका रेला बस्स नजरे झुकी थी……………..

उसकी हंसीके उमडते खुषीयोंके रेले,
दिलको न संभले ऐसे सारे नजारे,
मांनो की खुषीयाँ उमडकर जो आई,
जन्नतसे तकदीर जमीपर जो आई………….

नजरोसे उसके बेहोशी छा गयी,
आखोंमे खुशबू दिलमे निराली,
मुहब्बतने उसके आंखे चमकायी,
छुनेसे तनको खुशियाँ लहाराई…………..

ऊसकी जन्नत वही पर खडी थी,
इंतजारमे उसकी निगाहें लगी थी,
अब उल्फतसे उसने अंगुठी पहना दी…………..

दिलोंमे बहार और खुशियाँ उमड आयी,
इंतेजार की घडीयाँ खत्म जो हो गयी,
बरसोंकी काली घटा तो बिखर गयी,
मांनो गमके सदीयोंसे रिहाई जो हो गयी…………..


मुकुंद भालेराव
छत्रपती संभाजी नगर
०६-१२-२०२२ | रात – २३:५५

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