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अर्जुनस्य विषाद किं

युद्ध न करना है मुझको,
हरी ! राज्यकी चाह नही,
नही चाहीए धनरत्नोकी,
वैभवकी भी आह नाही……….

गुरुपीतासम सदृश सारे,
जिनसे पाया ज्ञान सदा,
पाला जिनके हातोने है,
वंदन करता मन मेरा………..

नही चाहीए वों गरिमाभी,
जिसके कारण सिंदूर मिटे,
सुवर्णमाला राजलक्ष्मी,
जिससे चुडीयां फुट पडे……….

कितनी सिंसकीं घरोघरोमें,
विधवांओंका रुदन बनें,
कितने अगणित शापोंसें जब,
जगमे तमका काल बने……….

कंपित मेरी भुजा हरी रे !
भयसे वाचा स्तब्ध हुईं,
शस्त्र करोंमें नही सम्हलतें,
धरती मानो सरक रहीं………

भ्राता सारे सम्मुख मेरें,
वंशवेलीकें फुल खिले,
हनन करु मै कैसे इनका,
रक्त बहाकर कुछ न मिले………

यत्न किये सभीं समझानेंकें,
समझ न कोईं पाया हैं,
कैसा होंगा युद्ध भयंकर
दुर्योधनने लाया है………..

कृष्णसखा तुम सबकुछ मेरे,
युद्ध मै किसके साथ करूं,
अपनोकेंही रक्तपातका,
कैसे मै अभिमान करूं…………..

पता नही मै लावू कैसे,
साहस मेरे अंतरमे,
कैसे शक्ती और मनोबल,
धारण करू मे बाहुमे………

गुरू द्रोणने दिये मुझको,
उन अस्त्रोंका कैसे वर्षाव करूं,
अपनोकेही प्राणहरणका,
कैसे मै अविचार करूं…………..

तुम्ही बताओ विश्वगुरु तुम,
धर्म कौनसा पथ मेरा,
जिसमे रक्षा सारोंकीं हों,
वो धर्म कौनसा है मेरा……………..

हर दे सारां भ्रम मेरा तू,
हर दे तमका अंधियारा,
विश्वधर्म की रक्षा करने,
भरदे अमृतका प्याला…………..


© मुकुंद भालेराव
औरंगाबाद
दिनांक : २३ डिसेम्बर २०२०
दिनांक: १२ मार्च २०२१, रात्रौ: २२:०९
दिनांक: १ नोव्हेंबर २०२३, वेळ: सायंकाळी: १८:५९

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