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अर्जुनस्य विषाद किं

युद्ध न करना है मुझको, हरी ! राज्यकी भी चाह नही,
नही चाहीए धनरत्नोकी, वैभवकी भी आह नाही……. ||१||

गुरुपीतासम सदृश सारे, इनसे पाया ज्ञान सदा,
पाला जिनके हातोने है, वंदन करता मन मेरा…. ||२||

नही चाहीए वों गरिमाभी, जिसके कारण सिंदूर मिटे,
सुवर्णमाला राजलक्ष्मी, जिससे चुडीयां फुट पडे…. ||३||

कितनी सिसंकीं घरोघरोमें, विधवांओंका रुदन बनें,
कितने अगणित शापोंसें जब, जगमे तम सा काल बने..||४||

कंपित मेरी भुजा हरी रे ! भयसे वाचा स्तब्ध हुईं,
शस्त्र करोंमें नही सम्हलतें, धरती मानो सरक रहीं…. ||५||

भ्राता सारे सम्मुख मेरें, वंशवेलीकें फुल खिले,
हनण करु मै कैसे इनका, रक्त बहाकर कुछ न मिले.. ||६||

यत्न किये सभीं समझानेंकें, समझ न कोईं पाया हैं,
कैसा बुरा घना पराजय, भीष्मद्रोणनें पाया है.. ||७||

कृष्णसखा तुम सबकुछ मेरे, समर किसीकें साथ करूं,
अपनोकेंही रक्तपातका, कैसे मै अभिमान करूं.. ||८||

पता नही मै कैसे साहस, अस्त्रोंका वर्षाव करूं,
अपनोकेही प्राणहरणका, कैसे मै अविचार करूं…. ||९||

तुम्ही बताओ विश्वगुरु तुम, धर्म कौनसा पथ मेरा,
जिसमे रक्षा सारोंकीं हों, वो धर्म कौनसा है मेरा.. ||१०||

हर दे सारां भ्रम मेरा तू, हर दे तमका अंधियारां,
विश्वधर्म की रक्षा करने, भरदे अमृतका प्याला.. ||११||

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One thought on “अर्जुनस्य विषाद किं

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