आंखे निंदसे बोझल थी, सपानोकी बारात जोरोंमे थी,
कि अचानक याद आ गयी, अभिरामकी धुंधलिसी छवि छा गयी |
सागरके किनारोंपर, रेतोंके पहाडोंपर,
छोटीसी पगदंडीपर, नाचता वो चला था,
आसमांके तारोंको, बुलाता वो चला था,
पौधोंके पत्तोंको, सहालाते वो चला था,
पंछीकी आहटको, सुनता वो चला था,
लहारोंकी रोशनीको, देखता वो चला था |
अब दिन बहुत बित गये, नही सुनी ऊसकी अंगिनत बाते |
बातोंकी अब बरसात नही, हंसीकी फुलझडी नही,
नन्हे उसके आंखोकी, अब कोई मस्ती नही,
धिरेसे पावोंकी आहट भी नही, चमकते आंखोकी
अब वो बात भी नही |
प्यारसे पुकारती अब वो आवाज कहां,
“आबा” दो अल्फाजोंकी, खुशबहार कहां,
बाहोंमे गलेंमे मस्तीका, आलम कहां |
शतरंजकी बाजीकी, मैफील कहां,
हसनेकी हसानेकी, मिठी मुस्कान कहां,
राजाको घोडेंसे, तकरार कहां,
हाथिकी प्यादोंसे, जंग भी कहां,
जंगकी तैयारीमे, शतरंजकी बाजी कहां |
सब खयालोंमे डुबा, मै उसे ढुंढ रहा था,
सिनेसे लगानेको, दिल ललचा रहा था,
ख्वाबोंमे अपने, दुनियां ढुंढ रहा था,
आलममे सारें, खोज उसे रहा था |
उषाकी रक्तिमांसे, पर्दे नयनोसे हठ गये,
इर्दगिर्द देखा तो, सपने सारे टूट गये,
मानो फरिश्तासा, वो अचानक आ गया,
दिलको हलकेसे, छूकर चला गया |
फिर यकायक कहिंसे, मिठी एक आवाज आयी,
“आबा ! मुझेभी तुम्हारी, बहुत याद आयी |
जल्दि जल्दि गोवांमे, दौडकर तुम आजाओ,
बहोत दिनोसे मै, मस्तीसे परे हो गया हूं,
याद तो बहोत आती है, बहोत मै परेशान हूं |
अगर तमन्नाओंके बादलपर, बैठना मुमकिन होता,
अगर ख्वाबोको हकीकतमे, बदलना संभव होता,
अगर इरादोंको सच्चाईमे, लाना बसमे होता,
काश ! आबा ! हवामे, तैरना मुझे आता,
पलभरमें हरदिन, मै मिलने तुम्हे आता |
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मुकुंद भालेराव | औरंगाबाद | महाराष्ट्र | दिनांक: ७ मे २०२२ | सुबह १०:३०
One thought on “काश ! आबा ! हवामे, तैरना मुझे आता,”
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खूपच सुंदर,एका आजोबांचे नातवा साठी,नातवाच्या आठवणीत रमलेले अतिशय भावस्पर्शी शब्दांकन.
आपल्या हिंदी भाषेवरील प्रभुत्व साठी मनापासून दाद,खूपच छान.एका प्रतिभावान कवी सारखी कविता झालिये
परत एकदा आपले अभिनंदन व पुढील लिखाणासाठी शुभेच्छा!!